न मन्त्रं नो यन्त्रं - यथा योग्यं तथा कुरु
पुल पार कर लेने से नदी पर नहीं होती - वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की यह पंक्ति उत्तराखण्ड की टोंस घाटी में एक पुराने झूला -पूल के सम्मुख आते ही याद आ जाना विचित्र संयोग था। वाकई पुल पार कर लेने और नदी पर करने में अंतर है। पानी में उतरे बिना नदी की गहराई और धारा के वेग का पता कहाँ चल पाता है। पुल पर से महज अनुमान ही लगाया जा सकता है की नदी है तो गहरी भी होगी ही।
यमुनोत्री-मार्ग पर बर्नीगाड के चौड़े फांट पर साहसी मत्स्य-आखेटकों को कमर से ऊपर पानी में नदी पार करते खूब देखा पर टोंस में यह देखना अभी तक नसीब नहीं हुआ। १५ वर्ष पहले इसी तमसा किनारे चार-पांच बार तो अपना तम्बू गड़ा ही था। तभी से याद है कि इसके किनारे पर ही घुटनो पानी रहा करता है।
ढाई माह पहले ६ जुलाई २०१४ को यात्री मोरी(उत्तरकाशी)-हनोल सड़क पर ' पांवो में छाले भी होंगे फिरभी हम मतवाले होंगे' नारे को आत्मसात करते पद-यात्रा कर रहा था। मोरी से ७ किमी आगे चलकर सामने आया एक पुराना झूला पुल उस विचित्र संयोग का कारण बना 'पुल के प्रवेश द्वार पर लिखे निर्माण वर्ष १८८८ ने कुछ देर रुकने-सोचने को विवश कर दिया।अचम्भित यात्री ने यह मान लिया था कि वह जिस जगह खड़ा है टोंस का यह छोर वर्तमान है तथा पार अतीत। दोनों को जोड़ता यह संकरा पुल मनुष्य की वह गर्व गाथा है जो दोनों को बिना नदी पार किए अभी तक मिलाता रहा है। पार ठडियार बंगला है इसी का हमउम्र। ऐसाही अनुभव इस घटना के एक माह बाद नंदा -जात से लौटते हुए रामगंगा घाटी(अल्मोड़ा ) में हुआ। मासी में १८८८ में बना ऐसा ही झूला पुल आज भी निर्बाध आर-पार आने-जाने का सबब बना हुआ है। पुल की अहमियत पहाड़ के लोगों से बेहतर कौन जान सकता है।एक पुल न रहने से वहां जीवन कितना असहज हो जाता है बल्कि ठिठक जाता है। टोंस घाटी से लगे दारगाड -कठियानं सड़क पर चार साल पहले धराशाई हुआ पुल आज भी डराता है। यही दूरस्थ गांव दाँगूठा -पटियूड के विद्यार्थी बरसात में जान हथेली प
र लेकर नाला पार करते है। उत्तराखण्ड में गत वर्ष आपदा से अबतक ६ पुल ध्वस्त हो चुके है। आश्चर्य भी होता है एक ओर १२६ साल पुराने पुल टिके हुए है जबकि आज की तकनीक जमीदोज होती दिख रही है।
नदी पार करने में सभी सक्षम नही हैं पर दो छोर जोड़ते पुल सलामत रहें दुआ ही की जा सकती है।
पुल पार कर लेने से नदी पर नहीं होती - वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की यह पंक्ति उत्तराखण्ड की टोंस घाटी में एक पुराने झूला -पूल के सम्मुख आते ही याद आ जाना विचित्र संयोग था। वाकई पुल पार कर लेने और नदी पर करने में अंतर है। पानी में उतरे बिना नदी की गहराई और धारा के वेग का पता कहाँ चल पाता है। पुल पर से महज अनुमान ही लगाया जा सकता है की नदी है तो गहरी भी होगी ही।
यमुनोत्री-मार्ग पर बर्नीगाड के चौड़े फांट पर साहसी मत्स्य-आखेटकों को कमर से ऊपर पानी में नदी पार करते खूब देखा पर टोंस में यह देखना अभी तक नसीब नहीं हुआ। १५ वर्ष पहले इसी तमसा किनारे चार-पांच बार तो अपना तम्बू गड़ा ही था। तभी से याद है कि इसके किनारे पर ही घुटनो पानी रहा करता है।
ढाई माह पहले ६ जुलाई २०१४ को यात्री मोरी(उत्तरकाशी)-हनोल सड़क पर ' पांवो में छाले भी होंगे फिरभी हम मतवाले होंगे' नारे को आत्मसात करते पद-यात्रा कर रहा था। मोरी से ७ किमी आगे चलकर सामने आया एक पुराना झूला पुल उस विचित्र संयोग का कारण बना 'पुल के प्रवेश द्वार पर लिखे निर्माण वर्ष १८८८ ने कुछ देर रुकने-सोचने को विवश कर दिया।अचम्भित यात्री ने यह मान लिया था कि वह जिस जगह खड़ा है टोंस का यह छोर वर्तमान है तथा पार अतीत। दोनों को जोड़ता यह संकरा पुल मनुष्य की वह गर्व गाथा है जो दोनों को बिना नदी पार किए अभी तक मिलाता रहा है। पार ठडियार बंगला है इसी का हमउम्र। ऐसाही अनुभव इस घटना के एक माह बाद नंदा -जात से लौटते हुए रामगंगा घाटी(अल्मोड़ा ) में हुआ। मासी में १८८८ में बना ऐसा ही झूला पुल आज भी निर्बाध आर-पार आने-जाने का सबब बना हुआ है। पुल की अहमियत पहाड़ के लोगों से बेहतर कौन जान सकता है।एक पुल न रहने से वहां जीवन कितना असहज हो जाता है बल्कि ठिठक जाता है। टोंस घाटी से लगे दारगाड -कठियानं सड़क पर चार साल पहले धराशाई हुआ पुल आज भी डराता है। यही दूरस्थ गांव दाँगूठा -पटियूड के विद्यार्थी बरसात में जान हथेली प
र लेकर नाला पार करते है। उत्तराखण्ड में गत वर्ष आपदा से अबतक ६ पुल ध्वस्त हो चुके है। आश्चर्य भी होता है एक ओर १२६ साल पुराने पुल टिके हुए है जबकि आज की तकनीक जमीदोज होती दिख रही है।
नदी पार करने में सभी सक्षम नही हैं पर दो छोर जोड़ते पुल सलामत रहें दुआ ही की जा सकती है।
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