Thursday, 25 September 2014

न मन्त्रं नो यन्त्रं -यथा योग्यं तथा कुरु 

                                                        आचार्य शंकर को नमन इसलिए की उम्र के ५वे दशक में कदम रखते ही उनके शब्द काम आए  और मनस्ताप हरण हो सका। अन्यथा जीवनभर कुछ भ्रांतियां बनी रहती। अब जाकर यकीन हुआ की मेरे पास भी न तो कोई मन्त्र है नही कोई यंत्र। 

                                                       'अब आप ही  बताओ  कि हम  क्या करें !आप तो गांव -गांव घूमते ; घूमकर आरहे हैं। खरसाड़ी (मोरी) गांव के  एक किसान अतोल सिंह  की यह पीड़ा भरी उम्मीद उत्तराखण्ड के ग्रामीणों का समवेत स्वर है। अस्कोट-आराकोट अभियान २०१४ के यात्री ऐसे ही न जाने कितने प्रश्नों से रूबरू हुए होंगे। रवाईं क्षेत्र का यह किसान ५ जुलाई  २०१४ की शाम अपने आँगन  में जमे कुछ  अपरिचितों  से परिचय के बाद कथा-व्यथा सुनाकर समाधान की आस लगाए बैठा था शायद  इसलिए की अभियान दल में बड़े-छोटे कैमरे लेकर आये प्रोफ़ेसर पत्रकार शोधार्थी आदि थे और लोगों की पीड़ा पूछ रहे थे।  उसकी पीड़ा के मूल में तंत्र से उपजी निराशा थी। चूँकि वह अक्सर उसीसे रूबरू होता है। पटवारी पिछले बरस नदी की भेंट चढ़ चुकी धन की क्यारियों की नाप लेने तहसील मोरी से ७ किमी दूर खरसाड़ी  नहीं जा सकता क्योंकि फीता उठाने का भी पैसा   है। अपना विधायक ही "वह किसी का नौकर नहीं है " कहकर झिड़कता है तो पंचायत -चुनाव में चले तमाम हथकंडे उसे सोचने पर मजबूर करते हैं की वहां ईमानदारी के लिए जगह नहीं। 

                                           यात्री क्या वह स्वयं भी जानता है 'समाधान ' नहीं होगा पर  बतौर सांत्वना जवाब मिलता है कि दल-बल  उत्तराखण्ड के गांवों को जानने आया  है। उसकी   बातों को मीडिया  में रख सकते हैं पर समाधान स्वयं उन्हें ही खोजना है। शायद यही  जवाब वह पिछले दशक में आये यात्रियों से सुन चुका  होगा। 
                                           अआ अभियान के १९७४ से २०१४  तक पांच दशकों के आंकड़े सुरक्षित हैं और इन पर बड़े- बड़े खंड प्रकाशित हो सकते हैं पर   ग्रामीणों  के प्रश्नों  का समाधान ! अपने पास नहीं है अस्तु आचार्य शंकर के शब्दों पर यकीन हो आना लाजमी है।    

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