Thursday, 4 June 2015

                                 न मन्त्रं नो यन्त्रं - यथा योग्यं तथा कुरु

                      ' जैंता एक दिन त आलो दिन ऊ  दुनी मै ' . गिर्दा की यह आशावादिता शब्दों में  भी थी और स्वभाव में भी। बीस  बरस  पहले  लगभग यही समय था।  १९९४ के  जून की  शुरुआत।  अस्कोट- आराकोट अभियान पदयात्रा में शामिल होते ही मुनस्यारी में यात्रियों के साथ खड़े होकर गीत गाने क्या गुनगुनाने का पहला प्रयास किया। तब तक इस कुमाउनी गीत से अपरिचित था। गिर्दा से भी एक बरस बाद ही मुखाभेंट हो   पाई थी। मुनस्यारी से गोपेश्वर तक रस्ते के गांवों में गाते -गाते ये शब्द कंठस्थ हो गए थे।
                       पदयात्रा से वापसी के बाद अपने चाय के अड्डे टिपटॉप में मित्रों  बीच कई बार ये  शब्द गुनगुनाए। उधर राज्य आंदोलन शुरू हुआ। सांस्कृतिक मोर्चा बना। फिर तो देहरादून की आंदोलनकारी जनता की जबां पर यह गीत छा  गया।
                       तब भी परम्परा और भाषाई लोभ ने कभी गीत के हिंदी अनुवाद करने -करवाने की दिशा  सोचने ही नहीं दिया।  शायद इसलिए की मन को भा जाने वाली वस्तु को अपने तक सीमित रखना अपनी  स्वभावगत प्रवृति है जबकि वह  किसी के एकाधिकार  परे होती है ।
                       पहल -९९ में मुखपृष्ठ खुलते ही गिर्दा  के इस गीत  की पंक्तियों का कविवर वीरेन डंगवाल कृत  हिंदी अनुवाद उस आशावादिता को और भी विस्तृत आयाम देता  है अस्तु पहल पत्रिका परिवार के  आभार के  साथ ही शुक्रिया वीरन दा !
       

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