Wednesday, 11 November 2015

    न मन्त्रं नो यन्त्रं , यथा योग्यं तथा कुरु 


इस दिवाली पर तमाम अंधेरों से लड़ने को सदैव तैयार रहने की शुभकामनाओं के साथ …… 
                                                                                                            
                                                                                                               
                                                                                                                                   - अलख निरंजन 

Thursday, 4 June 2015

                                 न मन्त्रं नो यन्त्रं - यथा योग्यं तथा कुरु

                      ' जैंता एक दिन त आलो दिन ऊ  दुनी मै ' . गिर्दा की यह आशावादिता शब्दों में  भी थी और स्वभाव में भी। बीस  बरस  पहले  लगभग यही समय था।  १९९४ के  जून की  शुरुआत।  अस्कोट- आराकोट अभियान पदयात्रा में शामिल होते ही मुनस्यारी में यात्रियों के साथ खड़े होकर गीत गाने क्या गुनगुनाने का पहला प्रयास किया। तब तक इस कुमाउनी गीत से अपरिचित था। गिर्दा से भी एक बरस बाद ही मुखाभेंट हो   पाई थी। मुनस्यारी से गोपेश्वर तक रस्ते के गांवों में गाते -गाते ये शब्द कंठस्थ हो गए थे।
                       पदयात्रा से वापसी के बाद अपने चाय के अड्डे टिपटॉप में मित्रों  बीच कई बार ये  शब्द गुनगुनाए। उधर राज्य आंदोलन शुरू हुआ। सांस्कृतिक मोर्चा बना। फिर तो देहरादून की आंदोलनकारी जनता की जबां पर यह गीत छा  गया।
                       तब भी परम्परा और भाषाई लोभ ने कभी गीत के हिंदी अनुवाद करने -करवाने की दिशा  सोचने ही नहीं दिया।  शायद इसलिए की मन को भा जाने वाली वस्तु को अपने तक सीमित रखना अपनी  स्वभावगत प्रवृति है जबकि वह  किसी के एकाधिकार  परे होती है ।
                       पहल -९९ में मुखपृष्ठ खुलते ही गिर्दा  के इस गीत  की पंक्तियों का कविवर वीरेन डंगवाल कृत  हिंदी अनुवाद उस आशावादिता को और भी विस्तृत आयाम देता  है अस्तु पहल पत्रिका परिवार के  आभार के  साथ ही शुक्रिया वीरन दा !
       

Monday, 20 April 2015


न    मन्त्रं  नो यन्त्रं …यथा  योग्यं  तथा  कुरू


वृक्षान्जली - ६


Thursday, 2 April 2015



न मन्त्रं नो यन्त्रं ……यथा योग्यं तथा कुरु

         वृक्षान्जलि -५


Thursday, 19 February 2015

न मन्त्रं नो यन्त्रं ---- यथा योग्यं तथा कुरु

                        'वृक्षान्जलि'

Friday, 23 January 2015

                                ' न  मन्त्रं  नो यन्त्रं  ---  यथा योग्यं तथा  कुरु '


                                                                वृक्षान्जलि --२
            

Friday, 9 January 2015

                                                 न मन्त्रं  नो यन्त्रं    -  यथा योग्यं तथा कुरु 

                                                                   वृक्षान्जलि -- १ '


Tuesday, 6 January 2015

                    न मन्त्रं  नो यन्त्रं    -  यथा योग्यं तथा कुरु 

                   वर्ष २०१४ अवसान की ओर।  इस पर अपना जौनसार प्रवास। लगभग डेढ़ दशक बाद (दद्दा) राजेन्द्र गुप्ता की कृपा से एक  बार  फिर से 'रूंख' (प्र०सं० १९८७ )  का साथ मिला।  साहित्यकार-संपादक विजयदान देथा  के अथक परिश्रम और प्रयास का फल हम जैसों को भी कृतार्थ करता है। एक प्रति सदैव अपने पास रखने की इच्छा  न जाने कब पूरी हो पायेगी। 
                   डेढ़ दशक पहले 'रूंख' पढ़ते हुए मन में दो इच्छाएं पनपी थीं।  एक तो पहली बार पढ़ी टैगोर दी 'तोता कहानी ' को नुककड़ नाट्य  में रूपांतरण  करना चाहिए ,  दूसरे  डा ०  मुकुन्द लाठ  द्वारा  किए गए संस्कृत -सुभाषित  के अनुवाद  'वृक्षान्जलि ' पर कविता -पोस्टर बनाने चाहिए।  अतृप्त  इच्छाएं   फिर  कुलबुलाई  तो उतावली में पोस्टर बनने शुरू हुए।
                  एक वर्ष पहले तक अपने पुराने आवास  में बरसाती  जलोत्प्लावन के दृश्य खूब देखे।  बरसात गुजरते ही  सूखती दीवारों पर पानी  से  छपे  और काई से बने  विचित्र -चित्र' भी।   तकनीकी  का लाभ लेते हुए तब कैमरे में कैद और  अब  'बिन गुरु ज्ञान ' लांप - झांप  कर  कुछ  विचित्र  चित्रों  को फोटोशॉप  पर वृक्षान्जलि पोस्टरों में प्रयुक्त का करने का काम शुरू हुआ। कविता  और  पोस्टर मेल न भी खा रहे हों तब भी !
                 'रूंख ' में डा ० मुकुन्द  लाठ  द्वारा  अनूदित संस्कृत सुभाषित 'वृक्षान्जलि ' अद्वितीय है।  इन्होंने मुझे आकर्षित किया और करते हैं।  ये  वल्लभदेव ,श्रीधरदास तथा विद्यापति द्वारा संग्रहित  सुभाषितावली ,सदुक्ति कर्णामृत  एवं सुभाषित रत्नकोष  जैसे ग्रंथों  से उद्धृत हैं। स्वयं अनुवादक  ने  इन्हें अन्योक्ति मानकर  विस्तार से चर्चा की है ।
                   डेढ़ दशक बाद एक इच्छा पूर्ति  का उल्लास भी विचित्र है।  तब भी , भाषा-वर्तनी  और चित्र -विचित्र  सभी से सम्बंधित भूलों  के  लिए क्षम्यताम् !   कविता -  पोस्टर  बेमेल सही, यह शुरुआत भर है।      
जारी रहेगा। समय के साथ तेवर भी बदलेंगे।  फ़िलहाल मन ने यही  ठान ली  कि - यथा योग्यं  तथा कुरु।